प्रस्तावना

मनुष्य की चिंतनशीलता और उसकी दोहरी प्रवृत्तियों (अंतर्मुखी और बहिर्मुखी) पर आधारित जीवन के विभिन्न आयामों का विस्तार से विश्लेषण करते हुए यह स्पष्ट होता है कि मानव जीवन बाह्य और आंतरिक, दोनों ही स्तरों पर संतुलन की माँग करता है।
मनुष्य का चिंतनशील होना उसे केवल अस्तित्व की बाहरी चुनौतियों तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे जीवन की गहनतम सच्चाइयों और रहस्यों को समझने के लिए प्रेरित करता है। यही गुण उसे दूसरों से अलग बनाता है। चिंतनशीलता केवल एक मानसिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक साधन है जो मनुष्य को तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाने और सत्य के मूल तक पहुँचने की शक्ति प्रदान करता है। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत, सापेक्षता का सिद्धांत, या दार्शनिक विचारधाराएँ इस चिंतनशीलता का ही परिणाम हैं। यह गुण उसे विज्ञान के साथ-साथ दर्शन और अध्यात्म में भी प्रविष्ट कराता है, जो मानव सभ्यता के विकास के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं।
मनुष्य की बहिर्मुखी प्रवृत्ति उसे बाहरी जगत के साथ जुड़ने, भौतिक संसाधनों का प्रबंधन करने और जीवन के आवश्यक साधनों की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है। यह प्रवृत्ति भौतिक जगत के संचालन के लिए आवश्यक होती है, जहाँ मनुष्य अपने ज्ञान, विज्ञान और तकनीकी कौशल का उपयोग करता है। दूसरी ओर, अंतर्मुखी प्रवृत्ति मनुष्य को आत्मविश्लेषण, आत्मा की शुद्धि और मानसिक संतुलन की दिशा में ले जाती है। अध्यात्म का आधार यही अंतर्मुखी दृष्टिकोण है, जो जीवन के गहरे उद्देश्यों को समझने और आंतरिक शांति की प्राप्ति के लिए आवश्यक होता है।
ब्रह्मांड की विशालता और संरचना मनुष्य के मस्तिष्क को आश्चर्यचकित करती है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार, दृश्य ब्रह्मांड का व्यास लगभग 93 अरब प्रकाश-वर्ष है, और इसमें 100-400 अरब तारे हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 2 खरब आकाशगंगाएँ हैं, जिनमें से प्रत्येक में अरबों तारे होते हैं। इस विशाल ब्रह्मांड की तुलना में मनुष्य की स्थिति अत्यंत सूक्ष्म है। लेकिन वेदों, उपनिषदों और भागवत पुराण में ब्रह्मांड की गहरी व्याख्या की गई है। वेदों में सृष्टि के आरंभ, ब्रह्मांडीय संतुलन और सृष्टिकर्ता के रहस्यों का वर्णन मिलता है, जबकि उपनिषद आत्मा और परमात्मा के एकत्व पर जोर देते हैं, जो ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने का प्रयास करते हैं।
विज्ञान और अध्यात्म दोनों ब्रह्मांड और जीवन के रहस्यों को समझने का प्रयास करते हैं। विज्ञान भौतिक जगत की कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश करता है, जबकि अध्यात्म आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझने का प्रयास करता है। विज्ञान तर्क और अनुभव के आधार पर सत्य की खोज करता है, जबकि अध्यात्म आंतरिक अनुभव और अंतर्दृष्टि पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, आधुनिक विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि हमारे विचार और भावनाएँ हमारे शरीर और मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। अध्यात्म भी यह मानता है कि मन, शरीर और आत्मा का आपस में गहरा संबंध है। अध्यात्म मनुष्य को व्यक्तिगत जीवन में शांति और संतुलन लाने के लिए प्रेरित करता है, और उसे आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर करता है। योग और ध्यान जैसे आध्यात्मिक अभ्यास मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को एकीकृत करते हैं। अध्यात्म हमें सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक सुखों में नहीं है, बल्कि आंतरिक शांति, और आत्मज्ञान की प्राप्ति में है।
धर्म और अध्यात्म दोनों जीवन को समृद्ध और अर्थपूर्ण बनाने की दिशा में काम करते हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति और अनुभव अलग-अलग होते हैं। अध्यात्म व्यक्तिगत यात्रा है, जो आत्म-ज्ञान की प्राप्ति की ओर ले जाती है, जबकि धर्म समाज में नैतिक अनुशासन और सामूहिक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। अध्यात्म व्यक्ति को आंतरिक यात्रा की ओर प्रेरित करता है, जहां वह आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा से एकात्मता प्राप्त करता है।
अध्यात्म और विज्ञान का एकीकृत दृष्टिकोण जीवन और ब्रह्मांड के गहरे अर्थ और उद्देश्य को समझने में सहायक होता है। विज्ञान जहां भौतिक सत्य की खोज करता है, वहीं अध्यात्म जीवन के अंतिम सत्य की ओर ले जाता है। इन दोनों का संतुलित उपयोग व्यक्ति को एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। अंततः, चिंतनशीलता, अध्यात्म और विज्ञान तीनों ही मनुष्य को जीवन के गहरे प्रश्नों का उत्तर खोजने की दिशा में प्रेरित करते हैं। इनका एकीकृत दृष्टिकोण हमें अपने जीवन के उद्देश्य, ब्रह्मांड की विशालता और सत्य की खोज की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
विज्ञान और अध्यात्म, बाह्य और आंतरिक जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें अक्सर विरोधाभासी समझा जाता है। विज्ञान का मुख्य उद्देश्य भौतिक संसार की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना है। यह तर्क, प्रयोग, और प्रमाण पर आधारित होता है। विज्ञान ने जीवन को सहज और सुविधाजनक बनाने के लिए अनेक आविष्कार किए हैं, जिनमें परिवहन, संचार, चिकित्सा, और अन्य तकनीकी विकास शामिल हैं। दूसरी ओर, अध्यात्म का कार्य मनुष्य को मानसिक और आत्मिक संतुलन प्रदान करना है। यह मनुष्य की आत्मा को शुद्ध करने, नैतिक और धार्मिक दायित्वों को समझने, और जीवन के चरम उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में कार्य करता है।
हालाँकि बाह्य रूप से विज्ञान और अध्यात्म भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन उनका अंतिम उद्देश्य समान है—मनुष्य को सुख, शांति, और संतुलन प्रदान करना। दोनों ही मनुष्य की चिंतनशीलता के उपज हैं और सत्य की खोज के विभिन्न पहलू हैं। अध्यात्म ने सदियों से मानवता को आंतरिक आनंद और शांति का मार्ग दिखाया है, जबकि विज्ञान ने बाह्य जीवन को सहज और समृद्ध बनाया है।
विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय ही मानवता की उन्नति का मूल मंत्र है। प्राचीन भारतीय परंपराओं में, विज्ञान और अध्यात्म ने मिलकर समाज को दिशा दी। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने जहाँ अध्यात्म में गहरी पैठ बनाई, वहीं वे भौतिक जगत के विज्ञान से भी अछूते नहीं रहे। योग, आयुर्वेद, ज्योतिष जैसे विज्ञानों का विकास इसी समन्वित दृष्टिकोण का परिणाम था।
विज्ञान और अध्यात्म का यह सामंजस्य न केवल मनुष्य के बाहरी जीवन को समृद्ध करता है, बल्कि उसे आंतरिक शांति और संतुलन भी प्रदान करता है। भविष्य में भी, यदि विज्ञान और अध्यात्म का सही ढंग से समन्वय होता है, तो यह मानवता के लिए एक नया युग ला सकता है। विज्ञान की खोजें और अध्यात्म का ज्ञान मिलकर न केवल भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेंगे, बल्कि मनुष्य के मानसिक और आत्मिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण होंगे।
अतः विज्ञान और अध्यात्म, दोनों ही मानवता के विकास के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। जहाँ विज्ञान बाह्य संसार को समझने और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का साधन है, वहीं अध्यात्म आंतरिक संतुलन और शांति की ओर अग्रसर करता है। इन दोनों का समन्वय ही मनुष्य को पूर्ण रूप से संतुलित और समृद्ध बना सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम विज्ञान और अध्यात्म को एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखें और उनके सामंजस्य से मानवता के उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ें।
अध्यात्म क्या है?
हम सबका स्वभाव ही अध्यात्म है। स्वभाव व्यक्ति की आंतरिक प्रकृति को व्यक्त करता है, जो उसकी भावनाओं, विचारों, आदतों और व्यवहारों के रूप में प्रकट होती है। यह स्वाभाविक रूप से विकसित होता है। बाहरी प्रभावों से प्रभावित भी होता है, लेकिन इसका मूल स्वरूप व्यक्ति के भीतर ही होता है। अध्यात्म का मार्ग हमें अपने इस स्वभाव को समझने और उसमें निहित दिव्यता को पहचानने में मदद करता है।
इंद्रियां स्वाभाविक रूप से बहिर्मुखी होती हैं। ये पांचों इंद्रियां – नेत्र, कान, नाक, जीभ, और त्वचा – बाहरी संसार के विषयों का अनुभव करने में व्यक्ति की सहायता करती हैं। लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब ये इंद्रियां व्यक्ति को अपने विषयों की ओर अत्यधिक आकर्षित करती हैं और व्यक्ति इन पर अपना नियंत्रण खो देता है। ऐसे में व्यक्ति विषय-भोग की इच्छा और लालसा में बंध जाता है, और उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
अब प्रश्न यह है कि क्या इन इंद्रियों का नाश कर देना चाहिए ताकि यह आकर्षण समाप्त हो जाए? इसका उत्तर है नहीं, क्योंकि इंद्रियों के नष्ट हो जाने पर भी मन में उनके विषयों की लालसा बनी रहती है। कुछ लोग इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए कठोर तपस्या, व्रत, उपवास आदि का सहारा लेते हैं। इससे इंद्रियां तो कुछ हद तक नियंत्रित हो जाती हैं, लेकिन मन का स्वभाव नहीं बदलता। मन अपनी चंचलता के कारण इंद्रियों के विषयों का निरंतर चिंतन करता रहता है। वह हठपूर्वक उन्हीं विषयों की ओर दौड़ता रहता है, जिनसे शरीर को दूर रखा गया है। इसका अर्थ है कि विषय-भोग की आसक्ति समाप्त नहीं होती, बल्कि कभी-कभी यह और बढ़ जाती है। ऐसे में तपस्या और उपवास से इंद्रियों की शुद्धि तो हो सकती है, लेकिन मन की शुद्धि तब तक नहीं होती जब तक उसका सही दिशा में प्रयोग न हो।
इंद्रियों पर नियंत्रण पाने के लिए मन का निग्रह करना आवश्यक है, क्योंकि मन ही इंद्रियों का संचालक होता है। परंतु मन अत्यंत चंचल और शक्तिशाली होता है, और इसे नियंत्रित करना सहज नहीं है। मन को वश में करना कठिन है, लेकिन यह अभ्यास और वैराग्य से संभव है।
मन को नियंत्रित करने का सबसे अच्छा उपाय है उसे किसी श्रेष्ठ उद्देश्य पर एकाग्र करना। जब मन किसी महान लक्ष्य, जैसे संसार के कल्याण या आत्मसाक्षात्कार, की ओर केंद्रित हो जाता है, तो वह अन्य विषयों में आकर्षण नहीं करता। श्रेष्ठ उद्देश्य पर एकाग्र मन असंख्य सृजनात्मक और कल्याणकारी कार्यों को जन्म देता है। जब व्यक्ति का मन उच्च विचारों और कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हो जाता है, तो उसका शरीर एक यंत्र की भांति कार्य करने लगता है। शरीर कर्म करता है, लेकिन मन और आत्मा उस कर्म से आसक्त नहीं होते।
अब प्रश्न यह है कि विवेकपूर्ण बुद्धि कैसे उत्पन्न हो? इसका उत्तर है आत्म-चिंतन, परम तत्व का चिंतन। जब हम उस परम तत्व के बारे में सोचते हैं जो सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है, तो हमारे भीतर विवेक जागृत होता है। यह विवेक हमें सही और गलत का निर्णय लेने में सक्षम बनाता है, और इस तरह से मन को सही दिशा में नियंत्रित करने में सहायक होता है। यह वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपने मन को संसार के कल्याण के प्रति समर्पित कर देता है, और फिर इंद्रियों का आकर्षण उसे बाधित नहीं कर पाता। जब मन का लक्ष्य संसार के कल्याण और कर्तव्य में रत हो जाता है, तो वह किसी भी अन्य विषय का चिंतन नहीं करता। इस अवस्था में व्यक्ति इंद्रियों के विषय-भोगों से भी निर्लिप्त रहता है। वह उन भोगों का आनंद तो लेता है, लेकिन उनमें आसक्ति नहीं होती। यही ज्ञान की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति सांसारिक बंधनों में रहते हुए भी उनसे मुक्त रहता है।
इस प्रकार, इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए मन का निग्रह आवश्यक है, और मन का निग्रह विवेकपूर्ण बुद्धि और परम तत्व के चिंतन से होता है। जब मन और बुद्धि नियंत्रित हो जाते हैं, तो इंद्रियां स्वाभाविक रूप से नियंत्रित हो जाती हैं। व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उसके बंधनों से मुक्त हो जाता है, और इस स्थिति में ही वह अपने जीवन का सच्चा उद्देश्य प्राप्त कर सकता है।
अध्यात्म केवल ध्यान, साधना, या पूजा नहीं है। जब हम यह कहते हैं कि “स्वभाव ही अध्यात्म है,” इसका मतलब यह होता है कि अध्यात्म केवल कुछ खास क्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे रोजमर्रा के जीवन और प्रत्येक क्रिया में निहित है। जब हम अपने स्वाभाविक गुणों के साथ जीते हैं, तब हम अध्यात्म का वास्तविक अर्थ अनुभव करते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी के प्रति करुणा दिखाते हैं, तब हम अपने दिव्य स्वभाव का प्रकटीकरण कर रहे होते हैं। जब हम शांति और धैर्य से प्रतिक्रिया करते हैं, तब हम आत्मा के शाश्वत गुणों को जी रहे होते हैं। जब हम दूसरों के प्रति सहानुभूति और सहयोग का भाव रखते हैं, तब हम उस आध्यात्मिक प्रेम को व्यक्त कर रहे होते हैं, जो हमारी आत्मा का स्वभाव है।
स्वभाव और अध्यात्म का संबंध तब और स्पष्ट होता है जब हम समझते हैं कि अध्यात्मिक मार्ग का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के स्वभाव का शुद्धिकरण है। हमारे स्वभाव में कई प्रकार की नकारात्मकताएँ होती हैं, जैसे क्रोध, लोभ, घृणा, आदि। ये नकारात्मकताएँ हमारे सच्चे आत्मस्वभाव को ढँक देती हैं। ध्यान और स्वाध्याय के माध्यम से हम अपने भीतर के दोषों को पहचानते हैं और उन्हें सुधारने की प्रक्रिया में जुटते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति का स्वभाव शुद्ध होता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप के करीब आता जाता है। अध्यात्मिक साधनाओं का मुख्य उद्देश्य यही है कि व्यक्ति अपने स्वभाव में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करे, ताकि उसका जीवन अधिक शांति और आनंदमय हो सके।
अध्यात्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है सहजता, और यह सहजता व्यक्ति के स्वभाव में प्रकट होती है। जब हम अपने स्वभाव के अनुरूप जीते हैं, तब हम जीवन को अधिक सहज और सरल दृष्टिकोण से देखते हैं। यह अध्यात्म की सहजता है, जो हमें बाहरी भ्रमों और उलझनों से मुक्त करती है। सहजता का अर्थ है कि हम जो कुछ भी करते हैं, वह स्वाभाविक रूप से और बिना किसी आंतरिक संघर्ष के होता है। यह जीवन को पूर्ण रूप से स्वीकारने का दृष्टिकोण है, जिसमें व्यक्ति अपने आस-पास की दुनिया से शांतिपूर्ण और समरसता से जुड़ा होता है। जब हम अपने भीतर के स्वभाव को समझते हैं और उसे जीते हैं, तो जीवन का हर क्षण एक प्रकार का ध्यान और भक्ति बन जाता है।
अध्यात्म में कर्म का विशेष महत्व है, और स्वभाव व्यक्ति के कर्मों का आधार होता है। जब हम अपने स्वभाव को शुद्ध और संतुलित कर लेते हैं, तो हमारे कर्म भी स्वतः ही शुद्ध और धर्मपरायण हो जाते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का जो सिद्धांत दिया है, वह इसी स्वभाव से जुड़ा हुआ है। जब हम अपने स्वभाव के अनुरूप और निरासक्त होकर कर्म करते हैं, तो हम अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। स्वभाव से उत्पन्न कर्म न केवल हमारे जीवन को सार्थक बनाते हैं, बल्कि समाज और विश्व के लिए भी कल्याणकारी होते हैं। अध्यात्मिक व्यक्ति अपने कर्मों में सेवा, परोपकार और समर्पण की भावना रखता है, जो उसके स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न होती है। इस प्रकार, कर्म और स्वभाव का गहरा संबंध अध्यात्मिकता को जीने का एक व्यावहारिक मार्ग प्रस्तुत करता है।
आध्यात्मिकता का अंतिम लक्ष्य आत्मबोध या आत्मसाक्षात्कार है। स्वभाव के माध्यम से आत्मबोध प्राप्त होता है, क्योंकि हमारा स्वाभाविक गुण हमारी आत्मा का प्रतिबिंब होता है। जब हम अपने स्वाभाविक गुणों, जैसे प्रेम, दया, शांति आदि का अनुभव करते हैं, तब हम अपनी आत्मा के निकट होते हैं। आत्मबोध का अर्थ है अपने सच्चे स्वरूप को जानना, और यह तब होता है जब हम अपने स्वभाव की गहराइयों में प्रवेश करते हैं। अध्यात्म हमें अपने सच्चे स्वरूप का अनुभव कराने की दिशा में मार्गदर्शन करता है, और यह अनुभव हमें शाश्वत आनंद और शांति प्रदान करता है। जब व्यक्ति अपने स्वभाव में स्थिर होता है, तो वह आत्मबोध की दिशा में अग्रसर होता है और जीवन में समग्रता का अनुभव करता है।
“स्वभाव ही अध्यात्म है” का सिद्धांत यह सिखाता है कि हम अपने आचरण, विचारों, और दृष्टिकोण में स्वाभाविक रहें, और अपने आंतरिक गुणों को शुद्ध और संतुलित करें। यही सच्चा अध्यात्म है, जो व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है।
श्रीमद्भागवत में व्यास-नारद संवाद यह सिखाता है कि अध्यात्मिक मार्ग का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के स्वभाव का शुद्धिकरण है। यह केवल एक ऐतिहासिक कथा भर नहीं है, बल्कि यह संवाद जीवन के गूढ़ रहस्यों और परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग प्रस्तुत करता है। इस संवाद में वेदव्यासजी और नारदजी के बीच की चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य केवल ज्ञान और कर्म के मार्ग पर चलना नहीं है, बल्कि ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति को आत्मसात करना भी है।
वेदव्यासजी, ने वेदों का संकलन किया और उन्हें ज्ञान, कर्म, और उपासना के तीन कांडों में विभाजित किया। उन्होंने महाभारत जैसा महान ग्रंथ भी लिखा, जिसमें श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान, कर्म, और भक्ति का अद्वितीय संगम है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और पुराणों की रचना भी की ताकि जन-सामान्य को धर्म, ज्ञान और मोक्ष के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। इसके बावजूद, वेदव्यासजी के मन में एक गहरा असंतोष और खालीपन बना रहा। उन्हें यह अनुभव हुआ कि उनके ग्रंथ ज्ञान का मार्ग तो दिखाते हैं, परंतु लोगों के हृदय में वह सच्चा संतोष और आनंद नहीं ला पाए हैं जिसकी समाज को आवश्यकता है। उन्होंने देखा कि समाज में विभाजन, स्वार्थ, असमानता और कलह व्याप्त हैं। लोग भौतिक उपलब्धियों के पीछे भाग रहे हैं, जिससे मानवता का वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट गया है और इसी कारण उन्हें आत्मिक शांति नहीं मिल रही थी।
इसी असंतोष की स्थिति में नारदजी का आगमन हुआ। वेदव्यासजी ने उनसे अपनी पीड़ा साझा की। नारदजी ने उनकी बात ध्यान से सुनकर मुस्कुराते हुए कहा कि वेदव्यासजी ने अपने समस्त ग्रंथों में या तो लोभ का आधार लिया है या भय का। आपने लोगों को यह बताया कि सत्कर्म करने से पुण्य मिलेगा और स्वर्ग की प्राप्ति होगी, वहीं पाप करने से निम्न योनियों में जाना पड़ेगा। नारदजी ने स्पष्ट किया कि लोभ और भय से व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदल सकता। स्वभाव को बदलने के लिए प्रेम और भक्ति की आवश्यकता होती है।
नारदजी ने समझाया कि समाज की समस्याओं का मूल कारण यह है कि लोगों के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति की कमी है। बिना भक्ति के मनुष्य का हृदय केवल ज्ञान और कर्म से संतुष्ट नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि जब तक व्यक्ति के हृदय में भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति नहीं जागती, तब तक वह सच्ची शांति प्राप्त नहीं कर सकता। जब व्यक्ति भगवान के चरित्र के बारे में सुनता है – उनके द्वारा की गई कृपा, उनकी करूणा, उनका शीलवान स्वभाव, उनकी कृपालुता और दयालुता – तो इन गुणों का मनन और चिंतन करते हुए साधक का स्वभाव धीरे-धीरे भगवान के गुणों की ओर झुकने लगता है। हमारे जीवन में जो अच्छे या बुरे कर्म होते हैं, उनके पीछे मुख्य रूप से हमारा स्वभाव होता है। सुख और शांति, जो हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य है, वे कर्म के अधीन हैं, और कर्म स्वभाव के अधीन।
जब हमारा स्वभाव शुद्ध और निर्मल होगा, तो हमारे कर्म और उनके पीछे की भावना भी शुद्ध होगी। इसके परिणामस्वरूप जीवन की दिशा और दशा भी सही होगी, सुख और शांति की वृद्धि होगी, और समाज में परस्पर प्रेम, सौहार्द और सहयोग का भाव बढ़ेगा। यही सनातन ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य है, और यही भक्ति का भी प्रमुख उद्देश्य है। नारदजी ने वेदव्यासजी को यह भी समझाया कि भगवान के नाम का आश्रय लेना, उनके चरित्र का श्रवण करना, और उनके गुणों का चिंतन और मनन करना, यही स्वभाव को बदलने का सबसे सशक्त साधन है।
नारदजी के मार्गदर्शन से प्रेरित होकर, वेदव्यासजी ने श्रीमद्भागवत की रचना करने का संकल्प लिया। इस ग्रंथ में उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के बाल्यकाल की लीलाओं, उनके दिव्य प्रेम और उनके भक्तों के प्रति उनकी करुणा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। भागवत में उन्होंने भगवान की लीलाओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि साधक के हृदय में भक्ति की अनुभूति जाग्रत हो सके। श्रीमद्भागवत की रचना के पश्चात वेदव्यासजी को वह आंतरिक संतोष प्राप्त हुआ, जिसकी उन्हें वर्षों से तलाश थी। इस ग्रंथ ने उन्हें आत्मिक संतोष प्रदान किया, और यह ग्रंथ उन सभी साधकों के लिए भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा बन गया जो सच्चे आनंद और शांति की खोज में हैं।
अंतर्मुखी और बहिर्मुखी स्वभाव का संतुलन
जीव की प्रकृति अंतर्मुखी या बहिर्मुखी होती है। अंतर्मुखी स्वभाव वाले लोग आत्मा की खोज और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर रहते हैं, उन्हें बाहरी भौतिक सुखों में कोई रुचि नहीं होती। ऐसे लोग ध्यान, साधना और आत्मविश्लेषण के द्वारा जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझते हैं। यह मार्ग कठिन होता है, क्योंकि इसमें बाहरी संसार से विरक्त होकर आत्मा की यात्रा की जाती है।
वहीं बहिर्मुखी स्वभाव के लोग बाहरी संसार में कर्मों द्वारा जीवन के उद्देश्यों को पूरा करते हैं। वे सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अपनी भूमिका निभाते हैं।
यद्यपि ये दोनों मार्ग भिन्न प्रतीत होते हैं, परंतु ये एक-दूसरे के पूरक हैं। कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से अंतर्मुखी या बहिर्मुखी नहीं हो सकता। एक संतुलित जीवन जीने के लिए इन दोनों मार्गों का संतुलन आवश्यक है।
गुणों से भी श्रेष्ठ सौम्य स्वभाव
जब हम केवल गुणों की बात करते हैं, तो इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के पास किसी कार्य विशेष में कुशलता, ज्ञान, या अच्छे कार्य करने की क्षमता होती है। परंतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गुणों का प्रभाव तभी सार्थक होता है जब उसे उचित, विवेकपूर्ण, और सौम्यता से व्यवहार में लाया जाए। यदि किसी व्यक्ति के पास महान गुण हैं, जैसे सत्य बोलना, दान करना, विद्वता या विशेषज्ञता, लेकिन उसका स्वभाव कटु, अहंकारी, या दूसरों के प्रति असम्मानपूर्ण है, तो उसके गुणों का वास्तविक मूल्य खो जाता है। इस स्थिति में, व्यक्ति के गुण तो होते हैं, लेकिन वे समाज में सकारात्मक प्रभाव छोड़ने में असफल रहते हैं, क्योंकि उसका व्यवहार लोगों को उससे दूर कर देता है।
स्वभाव, जो व्यक्ति की आंतरिक भावना और बाह्य आचरण का मिलाजुला रूप है, जीवन में अत्यधिक महत्व रखता है। सौम्यता वह गुण है जो दूसरों के साथ प्रेम, उदारता, और विनम्रता से व्यवहार करने की क्षमता को दर्शाता है। सौम्य स्वभाव का व्यक्ति अपने गुणों को विवेकपूर्ण ढंग से इस्तेमाल करता है और उसमें किसी प्रकार का अहंकार या दंभीपन नहीं होता। इसके विपरीत, जो व्यक्ति अपने गुणों को दूसरों के सामने दिखाने या उन पर रौब जमाने के लिए इस्तेमाल करता है, उसका स्वभाव कटु हो जाता है और गुणों का प्रभाव नष्ट हो जाता है।
इस संदर्भ में भगवान राम का उदाहरण सबसे उत्कृष्ट है। भगवान राम न केवल महान योद्धा और विद्वान थे, बल्कि उनके स्वभाव में सौम्यता, विनम्रता और करुणा का समावेश था। रामचरितमानस में अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि भगवान राम अपने गुणों और स्वभाव दोनों में संतुलन रखते थे। उदाहरण के लिए, जब विभीषण भगवान राम की शरण में आते हैं, तो सुग्रीव उन्हें शंका की दृष्टि से देखते हैं और सलाह देते हैं कि उन्हें तुरंत शरण देना ठीक नहीं होगा। इस पर भगवान राम बड़ी सौम्यता और उदारता से उत्तर देते हैं कि जो शरण में आए उसे वे अपनी जान के समान सुरक्षित रखेंगे। इससे भगवान राम का सौम्य स्वभाव और उच्च नैतिकता का परिचय मिलता है।
सौम्य स्वभाव का अर्जन केवल गुणों के सहारे नहीं किया जा सकता। इसके लिए आत्मावलोकन और सत्संग का विशेष महत्व है। सत्संग का अर्थ है सत् (सत्य) का संग अर्थात सच्चे और शुद्ध विचारों, आदर्शों, और महापुरुषों के साथ जुड़ाव। जब व्यक्ति सही मार्गदर्शन और सत्संग में रहता है, तो उसके स्वभाव में विनम्रता, शील, और उदारता का विकास होता है। सत्संग न केवल बाहरी परिवेश से मिलता है, बल्कि यह व्यक्ति के आंतरिक चिंतन और आत्ममंथन द्वारा भी संभव होता है।
आत्मावलोकन का अर्थ है स्वयं का आकलन करना और अपनी गलतियों, दोषों, और कमजोरियों को पहचानना। आत्मावलोकन से व्यक्ति समझता है कि उसमें कौन-सी आदतें या व्यवहार गलत हैं और कैसे उन्हें सुधारा जा सकता है। इस प्रक्रिया में वह न केवल अपने गुणों को परिष्कृत करता है, बल्कि सौम्यता, धैर्य और सहनशीलता को भी अपनाता है।
मधु मक्खी प्रत्येक फूल से केवल मिठास ग्रहण करती है और बाकी सभी अवांछित वस्तुओं को छोड़ देती है। इसी प्रकार, हमें भी अपने जीवन में सकारात्मकता और अच्छे गुणों को ग्रहण करना चाहिए, जबकि नकारात्मकता और दोषों को त्याग देना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि यदि हम जीवन में सौम्य और गुणग्राही स्वभाव अपनाते हैं, तो हमारा स्वभाव धीरे-धीरे परिपक्व और संतुलित हो जाता है।
यदि व्यक्ति का स्वभाव सौम्य है, तो उसका सामाजिक और पारिवारिक जीवन भी सुख और शांति से भरा होता है। एक व्यक्ति का सौम्य स्वभाव उसे न केवल अपने परिवार के लिए प्रिय बनाता है, बल्कि समाज में भी उसका आदर और सम्मान बढ़ता है। सौम्य स्वभाव का व्यक्ति अपने व्यवहार से दूसरों का दिल जीत लेता है और लोग उसकी मदद और स्नेह को ईमानदारी से स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत, कटु और अहंकारी स्वभाव का व्यक्ति चाहे कितने भी गुणों से परिपूर्ण हो, समाज में अकेला और अस्वीकृत हो जाता है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि गुण और स्वभाव दोनों का समन्वय जीवन को सफल और सार्थक बनाता है। गुणों का वास्तविक प्रभाव तब ही पड़ता है, जब वे सौम्यता और विनम्रता के साथ प्रस्तुत किए जाएं। इसलिए सत्संग, आत्मावलोकन, और सकारात्मक आदतों के द्वारा अपने स्वभाव को सुधारने की आवश्यकता है, ताकि हम न केवल गुणों से संपन्न हों, बल्कि हमारे स्वभाव में भी वह सौम्यता हो जो हमें एक बेहतर व्यक्ति बनाए।

इस संस्करण के पीछे मेरा उद्देश्य:
मानव जीवन का यथार्थ, ज्ञान और विश्वास के दो अटूट स्तंभों पर आधारित है। जहाँ एक ओर ज्ञान की पिपासा हमें जानने की दिशा में प्रेरित करती है, वहीं दूसरी ओर विश्वास और श्रद्धा हमारे जीवन में स्थिरता और संतोष की भावना का संचार करते हैं। मनुष्य का मस्तिष्क तर्क, जिज्ञासा और विज्ञान के माध्यम से सत्य का अन्वेषण करता है, जबकि हृदय श्रद्धा, विश्वास और भावना से जीवन के रहस्यों का समाधान ढूंढता है। परंतु, बुद्धि और हृदय दोनों की अपनी सीमाएं हैं। बुद्धि, चाहे जितनी भी प्रखर हो, सम्पूर्ण सत्य तक पहुँचने में सक्षम नहीं होती; और हृदय, चाहे जितना भी शुद्ध हो, कभी-कभी अंधविश्वास या अतिशय भावना का शिकार हो जाता है।
इन्हीं अंतर्विरोधों और चुनौतियों को सुलझाने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता हमें एक दिव्य और संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह ग्रंथ न केवल आध्यात्मिक पथ की ओर हमारा मार्गदर्शन करती है, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में व्यावहारिक समाधान भी प्रस्तुत करती है। गीता के उपदेशों में जीवन के रहस्य और सत्य का ऐसा संपूर्ण समन्वय है, जो न केवल हमारी आंतरिक यात्रा को प्रकाशित करता है, बल्कि समाज, परिवार और व्यक्तिगत जीवन की जटिलताओं का भी समाधान प्रस्तुत करता है।
आज समाज में गीता की व्याख्या की आवश्यकता अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज की दुनिया भौतिक प्रगति और वैज्ञानिक उन्नति के बावजूद आंतरिक शांति, संतोष और मानसिक स्थिरता से दूर होती जा रही है। बाहरी रूप से उपलब्धियों का अंबार लगने के बावजूद, हमारी अंतरात्मा में अशांति, असंतोष और मानसिक तनाव बढ़ते जा रहे हैं। इसी विडंबना को दृष्टिगत रखते हुए मैंने वेद, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद, षट दर्शन, और रामचरितमानस आदि के सिद्धांतों के आधार पर एक नवीन और व्यापक व्याख्या प्रस्तुत करने का संकल्प लिया है, जो न केवल आध्यात्मिक बल्कि तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सार्थक हो।
मैं गीता के शाश्वत सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ संजोने का अल्प प्रयास किया है, ताकि इस व्याख्या में न केवल आध्यात्मिक गहराई हो, बल्कि यह विज्ञान और तर्क की कसौटी पर भी खरी उतरे। गीता में वर्णित कर्म, भक्ति, ज्ञान और ध्यान के मार्ग केवल दार्शनिक चिंतन नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू के लिए व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। मेरा उद्देश्य इस व्याख्या के माध्यम से यह निवेदित करना है कि गीता के उपदेश न केवल आध्यात्मिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे आधुनिक जीवन की जटिलताओं, चिंताओं और समस्याओं का भी वैज्ञानिक समाधान प्रदान करते हैं।
इस यात्रा में, सनातन आर्ष ग्रंथों का भी मैं पूर्ण रूप से आश्रय लिया है क्योंकि वे हमारी सनातन संस्कृति और धरोहर का अमूल्य खजाना हैं। ये ग्रंथ, जो युगों-युगों से सत्य और धर्म के पथ पर हमें अग्रसर करते आए हैं, आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे जब वे रचे गए थे। मैं गीता की व्याख्या में इन ग्रंथों के सिद्धांतों का उपयोग किया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि आध्यात्मिकता और विज्ञान, दोनों ही जीवन के सत्य की खोज में एक-दूसरे के पूरक हैं। मेरा विश्वास है कि गीता के माध्यम से हम बाहरी प्रगति और आंतरिक शांति के बीच संतुलन स्थापित कर सकते हैं। जीवन में स्थायित्व, संतोष और सुख की प्राप्ति के लिए गीता के उपदेशों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का यह प्रयास, केवल एक आध्यात्मिक यात्रा नहीं, बल्कि एक वैचारिक और वैज्ञानिक अन्वेषण भी है।

सनातन धर्म में भगवद गीता का महत्व
भगवद गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला और विज्ञान का मार्गदर्शक है। यह न केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि जीवन के भौतिक और मानसिक पहलुओं में भी गहरा प्रभाव डालती है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और कर्म के परिणामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसे “निष्काम कर्मयोग” कहा जाता है, जिसमें कर्म तो करना होता है लेकिन फल की अपेक्षा या आसक्ति नहीं रखनी होती। यह सिद्धांत व्यक्ति को निस्वार्थ भावना से कार्य करने और चिंता-मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि यह शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अमर और अनंत है। इस प्रकार, आत्मा की पहचान और उसके साथ संबंध स्थापित करना ही मोक्ष का मार्ग है। यह ज्ञानयोग व्यक्ति को मोह और माया से ऊपर उठाकर सच्चे आत्मबोध की ओर अग्रसर करता है।
गीता में भक्तियोग का भी बहुत महत्व है। भगवान में संपूर्ण समर्पण और उनकी शरण में जाने से व्यक्ति को संतोष की प्राप्ति होती है। भक्ति योग केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समर्पण, प्रेम, और भगवान के प्रति संपूर्ण विश्वास का प्रतीक है।
गीता महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन की मानसिक दुविधा को हल करने के उद्देश्य से उपदेश के रूप में आई थी। अर्जुन अपने संबंधियों और गुरुओं के खिलाफ युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि उसे अधर्म और धर्म में अंतर करना कठिन हो रहा था। भगवान कृष्ण ने उसे समझाया कि अधर्म का विनाश करना ही धर्म है और कर्तव्य पालन ही व्यक्ति का वास्तविक धर्म है। गीता का यह संदेश सामाजिक न्याय और नैतिकता की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
भगवद गीता सभी धर्मों और मतों को एक समान रूप से देखती है। इसमें यह बताया गया है कि सभी प्रकार के धार्मिक मार्ग भगवान की ओर ही जाते हैं। चाहे कोई भक्ति के मार्ग पर हो, ज्ञान के मार्ग पर हो, या कर्म के मार्ग पर, सभी का अंतिम उद्देश्य एक ही है—परमात्मा की प्राप्ति। इस कारण गीता समन्वय और एकता का प्रतीक है।
भगवद गीता मानसिक संतुलन और ध्यान की शिक्षा भी देती है। इसमें योग और ध्यान के महत्व को रेखांकित किया गया है, जिससे व्यक्ति अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। यह तनाव और मानसिक विकारों के समाधान के रूप में है। गीता में यह बताया गया है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन समाज के प्रति उत्तरदायित्व के रूप में करना चाहिए। यह सामूहिकता, परोपकार, और नैतिकता का संदेश है।
भगवद गीता में ब्रह्माण्ड, आत्मा, प्रकृति, और चेतना के सिद्धांतों को स्पष्ट किया गया है, जो आधुनिक विज्ञान और दर्शन के साथ भी मेल खाते हैं। भगवद गीता की शिक्षाएँ सार्वभौमिक हैं, और पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक हैं और किसी भी व्यक्ति, चाहे उसका धर्म, जाति, या संस्कृति कुछ भी हो, उसे जीवन के सर्वोच्च लक्ष्यों की ओर प्रेरित करती हैं। भगवद गीता का महत्व जीवन के हर क्षेत्र में है—चाहे वह व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो, या आध्यात्मिक। इसका उपदेश व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाता है और उसे जीवन के हर क्षेत्र में सही दिशा दिखाता है।

दिवंगत पूज्य पिताजी की पावन स्मृति में
8 अगस्त 2024 की प्रातः ने हमारे पूरे परिवार के जीवन को गहरे दुःख में डुबो दिया। मेरे पिता, हमें छोड़कर अनंत यात्रा पर निकल गए। यह हमारे पूरे परिवार के लिए एक ऐसा आघात था, जिसने हमारे अस्तित्व को हिला कर रख दिया। वह हमारे मार्गदर्शक, हमारे शिक्षक, और आदर्श थे। उनके जाते ही ऐसा महसूस हुआ, मानो हमारे जीवन में एक गहरी शून्यता छा गई हो।
27 अगस्त को, जब अंतिम संस्कार और सभी धार्मिक क्रियाएँ संपन्न हो गईं, मैंने फिर से अपनी नियमित दिनचर्या आरंभ किया। रिश्तेदार, परिवारजन और मित्र जो हमारे दुःख में सहभागी बने हुए थे, सभी अपने-अपने कार्यों में वापस लौट गए थे, और मुझे भी अपने कार्यस्थल की ओर जाना था। आख़िर दुनिया हमारे दुःख के लिए कब तक रुकती? ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे बाहर कि दुनिया में सब कुछ पूर्ववत था। लेकिन मेरे भीतर एक गहरी हलचल थी। मेरे पिता अब हमारे बीच नहीं थे, फिर भी जीवन की धारा अनवरत बह रही थी।
भगवद गीता की शिक्षाओं से कुछ सांत्वना मिली। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी याद आई कि “जैसे मनुष्य पुराने और जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने और जीर्ण शरीरों को त्यागकर नए शरीर धारण करती है” (भगवद गीता 2:22)।
पिताजी के स्नेह भरे शब्द, उनके द्वारा दी गई शिक्षाएँ और अब उनके आदर्श स्मृतियों के रूप में हमारे दिलों में बसी हैं। मुझे महसूस हो रहा है कि वह चाहते थे कि हम अपने जीवन को उसी निष्ठा और समर्पण के साथ जिएँ, जैसे वह हमें सिखाते थे। उनकी शिक्षाएँ हमें आगे बढ़ने का हौसला दे रहीं हैं।
जीवन इसलिए नहीं चलता क्योंकि हम भूल जाते हैं, बल्कि इसलिए चलता है क्योंकि हम उन स्मृतियों को सजीव रखते हैं, जो हमें हमारे प्रियजन विरासत में देकर गए हैं। मेरे पिता की आत्मा मेरे साथ जीवित है। और बार बार स्मरण करा रही है कि उनको भगवान कृष्ण की वाणी पर कितना गहरा विश्वास था। गीता के उपदेशों का निरंतर श्रवण करना और जीवन में उतारने का प्रयास उन्होंने प्राणपर्यंत छोड़ा नहीं।
श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति, दर्शन, और अध्यात्म का एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसके सिद्धांत न केवल आध्यात्मिक उन्नति बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता और संतुलन के मार्गदर्शक हैं ।
मेरे जीवन में भी गीता की भूमिका विशेष रही है। मेरे पिताजी ने ही सन् 1983 में मुझसे गीता के श्लोकों का अर्थ सुनने की इच्छा जताई थी। उस समय, मुझे गीता के गहरे अर्थों का ज्ञान नहीं था। गीता के गहरे रहस्यों को समझने की यात्रा सरल नहीं थी। कई बार मुझे कठिनाई का सामना करना पड़ा, लेकिन मेरे पिताजी का निरंतर समर्थन और उनका मुझ पर अटूट विश्वास मुझे प्रेरित करता रहा।
मेरे पिताजी ने जीवन के अंतिम समय में भी फिर से मुझसे गीता की व्याख्या सुनने की इच्छा प्रकट की उनके जीवन के अंतिम क्षणों में गीता का ज्ञान पूर्ण तन्मयता से सुनना और सुनाना मेरे लिए अनिर्वचनीय क्षण था।
मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया कि सच्ची शांति और संतोष केवल आध्यात्मिकता और ज्ञान में ही प्राप्त हो सकते हैं। आज, जब मैं श्रीमद्भगवद्गीता पर अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ, तो यह संस्करण उनके प्रति एक समर्पण है, जिन्होंने मुझे इस अद्वितीय ज्ञान की प्रेरणा दी और जीवन जीने की सही दिशा दिखाई।
मैंने गीता के शाश्वत सिद्धांतों के व्याख्या के साथ, अपने जीवन के अनुभवों और मेरे माता-पिता द्वारा दिए गए अमूल्य संस्कारों को लेखनीबद्ध करने का प्रयास किया है। यह मेरा अपने माता-पिता के प्रति समर्पण और सम्मान है। इस प्रकार, जीवन की इस अनवरत धारा में, मैं अपने माता-पिता की स्मृतियों को संजोए हुए आगे बढ़ रहा हूँ।
मेरे पिता का भौतिक अस्तित्व भले ही समाप्त हो गया हो, लेकिन उनकी आत्मा मेरे दिल में सदैव जीवित रहेगी। यह मधुर प्रयास मैं अपने माता-पिता को समर्पित करता हूँ, जिन्होंने मुझे जीवन के सच्चे अर्थ को समझने और उसे जीने की प्रेरणा दी। उनकी विरासत, उनके आदर्श, और उनकी सिखाई हुई बातें सदैव मेरे जीवन का आधार रहेंगी।

टीका की संरचना के पीछे मेरा दृष्टिकोण (Approach)
इस विस्तृत व्याख्या का उद्देश्य गीता के प्राचीन और अमूल्य ज्ञान को युवा पीढ़ी के लिए एक उपयोगी और गहन मार्गदर्शन के रूप में प्रस्तुत करना है। इस के पीछे मेरे तीन प्रमुख उद्देश्य हैं:
(i) यह कृति मेरे दिवंगत पिता, जगन्नाथ शुक्ला, के प्रति मेरे आदर और प्रेम का प्रतीक है। जिन्होंने अपने जीवन में गीता की शिक्षाओं को महत्व दिया और अपने आचरण में ढालने का प्रयास किया। मैं चाहता हूँ कि इस कृति के माध्यम से उनके आदर्शों और मूल्यों को श्रद्धांजलि के साथ उन शिक्षाओं को समाज के सामने प्रस्तुत करूँ, जिन्होंने उनके जीवन को दिशा दी।
(ii) गीता की व्याख्या का यह कार्य मेरे लिए एक ऋषि यज्ञ भी है, जिसमें ज्ञान का प्रसार करना मेरा सनातन कर्तव्य है। गीता का ज्ञान एक व्यापक जीवन-दर्शन है, जो सबके लिए उपयोगी है। मेरा प्रयास होगा कि मैं गीता के संदेशों को वैज्ञानिक, तार्किक, और आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करू। मेरी भावना यह है कि समाज को एक ऐसे ज्ञान से समृद्ध किया जाए, जो शाश्वत और सार्वभौमिक हो। गीता की शिक्षाएँ समय की सीमाओं से परे हैं और हर युग में, हर परिस्थिति में प्रासंगिक हैं। इस व्याख्या के माध्यम से मेरा प्रयास रहेगा कि गीता के गूढ़ संदेशों को सरल भाषा और व्यावहारिक दृष्टिकोण में प्रस्तुत कर सकूँ, जिससे अधिक से अधिक लोग इसे समझकर अपने जीवन में आत्मसात कर सकें।
(iii) इस व्याख्या को आधुनिक और भविष्य की पीढ़ियों के लिए जीवन की चुनौतियों के समाधान के रूप में प्रस्तुत करना चाहता हूँ। आज, समाज में बाहरी उन्नति तो हो रही है, लेकिन आंतरिक शांति और संतुलन घट रही है। गीता की शिक्षाएँ मानसिक स्थिरता और आंतरिक शांति प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन बन सकती हैं। गीता को केवल धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक मार्गदर्शन के रूप में देखा जाए।
इस व्याख्या में गीता के प्रत्येक श्लोक का सरल विवेचन करने का प्रयास किया हूँ। मेरा मानना है कि मुक्त सिद्धांतो को लेकर विभिन्न सनातन ग्रंथो में कोई भेद नहीं है।
इस व्याख्या में मैंने वेद, ब्रह्मसूल, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, षट दर्शन, रामचरितमानस और अन्य प्रामाणिक सनातन ग्रंथों की शिक्षाओं को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया हूँ, जिससे गीता के विचारों को और अधिक स्पष्ट दृष्टिकोण से प्रस्तुत कर सकूँ।
गीता की शिक्षाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समझने का प्रयास किया हूँ। गीता के कई संदेश, जैसे आत्मा की अमरता, कर्म का सिद्धांत, और ध्यान की विधियाँ, आधुनिक विज्ञान और दर्शन के साथ मेल खाती हैं। इस व्याख्या में मैं आधुनिक विज्ञान और गीता के संदेशों के बीच एक सेतु बनाने का प्रयास किया है, जिससे गीता को न केवल धार्मिक ग्रंथ के रूप में देखा जाए, बल्कि इसे एक व्यापक जीवन-दर्शन के साथ वैज्ञानिक सत्य के रूप में भी स्वीकारा जाए।